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पूँजीवादी आधिपत्य



: पूँजीवादी आधिपत्य :

जीवित रहने के लिए मनुष्य खाने-पीने की चीजें पैदा करते हैं; पहनने के लिए कपड़े बनाते हैं, रहने के लिए घर बनाते हैं। इस क्रम में वे आपस में उत्पादन का सम्बन्ध कायम करते हैं। भारत में लोक की भूमिका निर्णायक थी जो सभी को आपसी सामंजस्य और संतुलन के साथ गुजर-बसर करने की अनुमति प्रदान करता था। बाद में औद्योगिक पूँजीवाद ने लोक-संस्कृति अथवा ग्राम-स्वराज की सार्वभौम धारणा को खंडित कर दिया। उसने औद्योगि पूँजीवाद की जो अवधारणा रखी उसमें बड़ा पूँजीपति छोटे पूँजीपति को खा जाता है। वह मजदूरों की श्रम-शक्ति का ही अपहरण नहीं करता, वरन् छोटे पूँजीपतियों का, उनके व्यवसाय का, अपहरण भी करता है। वर्तमान में पूँजी का केन्द्रीकरण जिस खतरनाक तरीके से हो रहा है, भयावह है। यह पूँजीवादी आधिपत्य की नई स्थिति है जिसमें बाज़ार पूँजीकरण के सहारे वैश्विक कब्जे की तैयारी अन्दर ही अन्दर की जाती है। पूँजीपति जो काम करते हैं वह यह है कि उत्पादन के साधनों में तेजी से तरक्की करते हैं। इस तरह वे बड़े पैमाने पर बिकाऊ माल पैदा करते हैं। इस बिकाऊ माल से पिछड़े हुए देशों के बाजार को तोप देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ये जो पिछड़े हुए लोग थे, जिन्हें किसान जातियाँ कहा जा सकता है, ये अब परिवर्तित हो जाते हैं। बड़े देशों के पूँजीपति इन्हें भी पूँजीपति बना देते हैं। इससे पहले जो प्रक्रिया घटित होती है, वह यह है कि किसानों की जातियाँ पूँजीपतियों की जातियों पर निर्भर हो जाती हैं, उनके अधीन हो जाती है। पूरब के देश पश्चिम के देशों के अधीन हो जाते हैं। अभी तक का इतिहास गवाह है कि बड़े देशों के पूँजीपतियों ने, जब अन्य देशों पर अधिकार किया, तो वहाँ पूँजीवादी परिवर्तन नहीं हुआ। वे ऊपर उठकर बड़े पूँजीवादी देशों के बराबर नहीं आ गए, वे जहाँ थे उसके भी नीचे ढकेल दिए गए। उनकी हालत और भी ख़राब हो गई। वित्तीय पूँजी की प्रमुख विशेषता, जैसा कि लेनिन ने बताया था; यह है कि वह प्रभुत्व करना चाहती है। यह किसी विशेष कार्यक्षेत्र के अन्दर शांतिपूर्ण ढंग से, ‘आम कारोबार’ के लिए नहीं; बल्कि अधिग्रहण के लिए प्रयासरत रहती है। इसलिए यही पर्याप्त नहीं है कि विŸाीय पूँजी की विचारधारा जनता को सामूहिक प्रतिरोध की क्षमता से वंचित करे और उनको ऐसे अलग-अलग व्यक्ति बनाकर रख दे जो अपनी वस्तुगत परिस्थितियों को मन मारकर स्वीकार कर लें, बल्कि वह लोगों के भीतर (लुकाच के शब्दों का प्रयोग करें तो) एक ‘प्रतिक्रियावादी क्रियाशीलता’ को संगठित किया जा सके। सामाजिक अर्थविज्ञानियों द्वारा पूँजीवाद की सात विशेषताएँ गिनाई गई हैं, 1) अन्तरराष्ट्रीय पूँजी एक नई इकाई का उदय है जो किसी विशेष राष्ट्र पर आधारित या किसी विशेष राष्ट्रीय पूँजीवादी रणनीति से जुड़ी हुई नहीं है। मनमाने मुनाफ़ों की चाहत में यह दुनिया के स्तर पर बेहद गतिशील है और इसका चरित्र ऐसा नहीं है कि यह कहीं की औद्योगिक पूँजी से जुड़ जाए, किसी राष्ट्रीय औद्योगिक पूँजी की बात तो जाने ही दीजिए; 2) अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के उभार ने राजसत्ता की प्रकृति को भी बदल दिया है जिसके कारण अब वह पूरी तरह वित्तीय निगमों को बढ़ावा दे रही है; उसका अब अपनी उस छवि से कुछ लेना-देना नहीं जिसमें वह हर वर्ग के हितों की नुमांइदगी करने वाली दिखती थी, अब तो एक ही तर्क दिया जा रहा है कि पूरे समाज के हित तो वित्तीय पूँजी के हितों के जरिए ही बेहतरीन ढंग से पूरे किए जा सकते हैं; 3) राजसत्ता की प्रकृति में इस बदलाव के चलते सार्वजनिक हित पर और कल्याण कार्यों पर खर्चे में कटौतियाँ की जा रही हैं और आमतौर पर इस तरह के खर्च घटाने की नीतियों को अपनाया जा रहा है। वित्तीय पूँजी हमेशा राल्य के व्यय में कटौती को प्राथमिकता देती है; 4) पूँजीवादी दुनिया में विकास की दर के धीमे पड़ने पर एक दीर्घकालिक परिवर्तन आया है अर्थात् प्राथमिक मालों और उसके उत्पादों के बीच व्यापार के मामले में उतार-चढ़ाव के द्वारा औसत में तब्दीली हुई है जो कि प्राथमिक मालों के हितों के खि़लाफ है। इसके चलते पूरी दुनिया में जहाँ-जहाँ किसानी उत्पादन होता है, किसान काफी हद तक बदहाल हुआ है। इसी तरह विश्व के स्तर पर मांग में आई कमी के कारण छोटे उत्पादकों का एक पूरा दायरा बदहाली का शिकार हुआ है; 5) छोटे उत्पादन का यह संकट ऐसे उत्पादकों के साधनों के और खासकर भूमि के छिन जाने का कारण बन रहा है। उन्नीसवीं सदी में पूँजीवाद का फैलाव ऐसे हालात में हुआ था जब दुनिया के शीतोष्ण क्षेत्र के खासे बड़े-बड़े हिस्सों को उन्नत देशों ने अपने उपनिवेश बना लिए थे जहाँ ज़मीने या तो खाली पड़ी थीं या ‘मूलनिवासियों’(इंडियन) के हाथ में थी जिनसे उन्हें खदेड़ दिया गया। संक्षेप में इन दोनों कारणों से, पूँजीवाद के सामने एक ‘खुला मैदान’ मौजूद था। इसके अलावा उपनिवेशों के छोटे उत्पादकों की कीमत पर वहाँ अपने औद्योगिक मान बेचकर और वहाँ के उद्योग-धंधे तबाह करके पूँजीवाद ने अपने अधीन उपनिवेशों में भी अपनी ‘घरेलू बेरोजगारी का निर्यात’ किया; 6) किसानों की ज़मीन का यह अधिग्रहण पूँजीवाद के इस चरण की एक कहीं अधिक सामान्य विशेषता का सिर्फ एक हिस्सा है। यह ‘कब्जे के जरिए संचय’ (एक्युमुलेशन थू्र एनक्रोचमेंट) है। यह ‘प्रसार के जरिए संचय’ के सर्वथा विपरीत है जिसमें पूँजी के बड़े-बड़े जखीरे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए बिना बढ़ते, और बढ़ते जाते हैं। वहीं अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के मौजूदा दौर की विशेषता यह है कि ‘कब्जे के जरिए संचय’ की सापेक्षतया भूमिका काफी बढ़ चुकी है। राजकीय क्षेत्र की परिसंपत्तियों का निजीकरण और ‘कौड़ियों के मोल’ उनका अधिग्रहण, किसानों का शोषण और उनकी ज़मीनों पर कब्जे, छोटे उत्पादकों का विस्थापन और उनके अब तक के कार्यक्षेत्र पर कब्जा तथा बड़ी पूँजी के हाथों छोटी पूँजी का विस्थापन-यह ऐसा परिदृश्य है जिसमें ये प्रवृत्तियाँ आज के दौर में बहुत अधिक बढ़ रही हैं; 7) दुनिया को फिर से उपनिवेश बनाने का एक सुव्यवस्थित प्रयास जारी है, खासकर कच्चे मालों और सबसे बढ़कर तेल की चाहत में, जिसके लिए तेल उत्पादक देशों के ऊपर घातक हमले करके युद्ध छेड़े जा रहे हैं जिनके भयानक परिणाम सामने आ रहे हैं।

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