: धर्म :
सामाजिक विकास की एक मंजिल में नीतिशास्त्र, दर्शन, राजनीति, इतिहास, काव्य आदि अलग-अलग विषय नहीं होते, वे सब एक ही लिखित अथवा मौखिक वाङ्मय के अन्तर्गत होते हैं और उसे धर्म कहा जाता है। संसार के बारे में मनुष्य जो कुछ सोचता-समझता है, उसे वह अपने धर्म नामक विश्वकोश में एकत्र करता जाता है। यदि भाषाविज्ञान से लेकर दर्शनशास्त्र तक मानव-जाति के इतिहास को, ज्ञान के विकास को समझने की स्रोत-सामग्री विद्वानों को धर्मग्रंथों में मिली है, तो यह स्वाभाविक है। मनुष्य किसी युग-विशेष में, किसी समाज-विशेष में रहता है। अतः देशकाल से परे कोई अमूर्त मानव-तत्त्व नहीं है। धर्म में जो अतिकल्पना (फैंटेसी) है, वह इस संसार को ही प्रतिबिम्बित करती है, किन्तु वह संसार को प्रत्यावर्तित रूप में दिखाती है, वह जैसा है, वैसा नहीं दिखाती है। दुनिया भर में धर्म कम निजी और ज्यादा से ज्यादा सार्वजनिक दायरे में दृश्य होते जा रहे हैं तथा मेडिकल, शोध, महिलाओं के प्रजनन विकल्पों, यौनिकता, पर्यावरण, आतंकवाद, सशस्त्र संघर्षों से लेकर हर चीज से जुड़ी नीतियों पर प्रभावी होते जा रहे हैं। भारत में भी इसके साक्ष्य मौजूद हैं। जो रूढ़ियाँ और पूजा कभी घरेलू मामले हुआ करते थे; अब ज्यादा से ज्यादा सार्वजनिक मामले बनते जा रहे हैं। वास्तव में इनमें से कई सार्वजनिक कर्म तो बड़े पैमाने पर राजनीतिक आयोजनों में तब्दील हो रहे हैं, जहाँ धर्मगुरु और राजनेता एक साथ होते हैं। यह अब चुनावी प्रचार के दौरान नेताओं के आम बात हो चली है वे सार्वजनिक धन से ‘राजनीतिक दर्शन’ करें। ऐसा लगता है कि सभी दलों के राजनीतिक प्रतिनिधि अपनी राजनीतिक हितों के लिए बड़े पैमाने पर हिंदू कर्मकाण्डों का आयोजन राज्य मिशनरी के इस्तेमाल से करते हैं। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह द्वारा 2003 में अपनी चुनावी जीत के लिए मध्य प्रदेश में सार्वजनिक प्रार्थनाएँ और यज्ञ आयोजित करवाने का आदेश हो चाहे भाजपा के कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा जिन्होंने सिर्फ पाँच महीनों में 11 लाख रुपए मंदिरों के दर्शन पर फूँक दिए। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने भी टाटा की नैनो कार फैक्ट्री के लिए भूमि पूजन करवाने से पहले एक बार भी नहीं सोचा।...एनईएस द्वारा 2004 और 2009 में सार्वजनिक धार्मिक गतिविधियों के मापे गए रुझान बताते हैं कि इनमें निजी पूजा सबसे आगे है जिनका नेतृत्व अमीर, ऊँची जाति के लोग और शिक्षित लोग कर रहे हैं। उच्च जाति के अमीर लोगों में करीब 30 फीसदी लोगों की भागीदारी बढ़े पैमाने पर सार्वजनिक कर्मकाण्डों में पाई गई, जिनमें दलितों और आदिवासियों की संख्या 16 फीसदी थी। इन खाए-पिए अघाए लोगों की बढ़ती धार्मिकता को बुद्धिजीवी अक्सर महज़ ‘उपभोक्तावाद’ कह कर ख़ारिज कर देते हैं या फिर यह कि वे अपनी आय को एक और अनुभव पर खर्च कर पाने के लिए आजाद हैं और ऐसा करने में उन्हें अच्छा लगता है। लेकिन इस किस्म की उपेक्षा अनावश्यक है। धर्म का उपभोग कोई नए ब्रांड की बियर या एक जोड़ी जूते को खरीदने जैसी चीजें नहीं है। इसका अर्थ इसके कर्मकाण्डों में हिस्सा लेना है, ईश्वरीय सुझावों के हिसाब से जीना है और आम तौर पर इस पावन अनुभव व अपनी गतिविधियों को साझा भी करना है जो दुनिया के प्रति लोगों के बुनियादी झुकाव को आकार देते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हर धार्मिक गतिविधि संकरी मानसिकता को जन्म देती है या फिर यह कि जो लोग धार्मिक होते हैं; वे सभी असहिष्णु ही बन जाते हैं-निश्चित तौर पर ऐसे गहरे धार्मिक हिंदू भी हैं जो साम्प्रदायिक नहीं और ऐसे भीषण साम्प्रदायिक लोग हैं जो बिल्कुल भी धार्मिक नहीं। कुल मिलाकर इसका अर्थ यह हुआ कि धार्मिक गतिविधियाँ अस्मिताओं को आकार देती हैं जो एक निश्चित राजनीतिक सन्दर्भों में पक्षपाती हो सकती हैं। चूँकि अस्मिताओं और आस्थाओं के आकार देने में धार्मिकता बुनियाद का काम करती है, इसीलिए यह धार्मिक राष्ट्रवाद की एक अनिवार्य पूर्व शर्त है। सिर्फ उन समाजों में जहाँ पुराने किस्म के धर्म आज भी जिंदा है, उनके प्रतीक अनुयायियों के बीच राष्ट्रीय गौरव की तलाश के लिए एक संघटन पैदा कर सकते हैं। जब भारी संख्या में लोग धार्मिक कर्मकाण्डों की व्यवहार्यता पर विश्वास करने लगते हैं-जैसे मानसून लाने के लिए यज्ञ की ताकत पर या फिर लड़की की जगह लड़का पैदा करने के लिए-तो वे चुने हुए जन-प्रतिनिधियों द्वारा जनता के पैसे से कराए जाने वाले राजनीतिक यज्ञों को भी ग़लत नहीं मानते।
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