: जन-मुक्ति :
आज मनुष्य का सबसे बड़ा और तात्कालिक मुक्ति-संग्राम राज्य से मुक्ति का ही है। इस ओर ‘यूटोपिया’ तथा राज्यविहीन समाज की कल्पना की जाती रही है। ‘अनार्किस्ट’ विचारधारा ने सबसे संगठित रूप से इस पर विचार किया है। उसका असर मार्क्स के विचारों पर भी दिखाई देता है पर वास्तव में ज्यों-ज्यों राज्य का अनिवार्यतः आतातायी होना प्रमाणित होता गया है-राज्य सामंतवादी हो, पूँजीवादी या समाजवादी त्यों-त्यों इस ओर लोगों का ध्यान जा रहा है। जन भी अपनी मासूम सोच में राज्य और राज्यनीति को अपना विरोधी समझता जा रहा है। भारत के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर केन्द्रित ‘भारत की जनकथा’ पुस्तक के लेखक लाल बहादुर वर्मा की दृष्टि में, ‘‘मुक्ति साध्य भी है और साधन भी। साध्य के रूप में वह परमगति है, हर तरह के बंधनों से मुक्ति है, परिनिर्वाण है। साधन के रूप में वह भौतिक, बौद्धिक और आत्मिक (आध्यात्मिक की बात नहीं की जा रही) आनन्द का साधन है। इस मुक्ति से सभी अपनी संभावनाओं को उजागर करने की ओर अग्रसर हो सकते हैं। इस स्थिति में ‘सबमें उसकी क्षमतानुसार और सबको उसकी आवश्यकतानुसार’ उपलब्ध हो सकता है। हालाँकि यह एक आदर्श स्थिति है। इसे विभिन्न व्यवस्थाएँ लागू करने का दावा करती रही हैं।
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