: चारित्रिक दोष :
हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार में जो कपटता और लपंटपन है, उस प्रकृति को जनसामान्य की दृष्टि में चारित्रिक दोष कहा गया है। यह सोलह आना सच है कि किसी तरह की बुराई, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, बेईमानी, अनैतिक आचरण आदि में संलिप्तता का सीधा अर्थ है कि उस व्यक्ति-विशेष में जन्मजात यह विकृतियाँ मौजूद हैं, दुष्टता के बीजगुण विद्यमान हैं। यानी सचाई की बात करने वाला इंसान यदि बाद में झूठा साबित होता है तो यह हमारी कठिनाई है कि हममें बेईमानी और सचाई में फर्क करने की क्षमता नहीं है; अन्यथा जिस तरह लाल रंग हरे रंग में नहीं बदल सकता है और उजला काले रंग का नहीं हो सकता है; उसी तरह कोई नैतिक रूप से सजग व्यक्ति ग़लत और बेईमान भी नहीं हो सकता है। संचार की यह बड़ी सीमा है कि वह किसी बात को कई तरह से और कई रूपों में कह सकता है, किन्तु किसी को उसे मानने हेतु पूर्णतया बाध्य कतई नहीं कर सकता है।
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