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बीता बचपन, अपना स्वर्णयुग


                          तेम कुनुन्ग
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जि़ंदगी की सबसे हसीन पल बचपन है जो लौट कर वापस नहीं आने वाले हैं। बस उसकी याद ही केवल रह जाती है। जिस किसी ने भी उस हसीन पल का नहीं जिया है उनलोगों ने बचपन के उस अमृत-रस को नहीं पिया है। वह जि़न्दगी भी क्या जि़न्दगी जिसमें अपना बचपन ही खो दिया है। ऐसे लोगों पर मुझे दया आती है जो अपना बचपन ही खो दिए हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को स्वर्ण-युग माना गया है। हमारी दृष्टि में हसीन पलों वाला बचपन भी स्वर्ण-युग से कम नहीं है। जि़न्दगी में सभी मनुष्य के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं और यही जीवन का रीति-रिवाज है अर्थात् ‘कभी खुशी कभी कम, कभी ज्यादा कभी कम’। संसार के सभी लोग अपने निजी कामों में व्यस्त रहते हैं।। अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं। अपने परिवार, पत्नी, बच्चे, रिश्तेदारों आदि के बारे में सोचते हैं। अपने व्यस्ततम स्थिति या अपने भविष्य आदि को लेकर परेशान होते हैं कि कैसे अपने घर-बार को देखें? कैसे अपने बच्चों को एक अच्छे स्कूल में दाखिला कराएँ? कैसे अपने निजी जरूरी वस्तु अथवा इच्छाओं को पूरी करें। 

इस तरह सभी लोग राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों से घिरे हुए हैं। किन्तु बचपन वह युग है जो इन सब बातों से परे रहता है। हम इन सभी समस्याओं से परे अपने जि़न्दगी के हसीन पलों को खुलकर जीते हैं। बस अपने दोस्तों के साथ किसी भी तरह, किसी भी हाल में अपने मित्रों के संग होना। यही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य रहता है। जब बच्चा दोस्तों के संग रहता है, तो ना समय का, ना दिन, ना रात, ना भूूख आदि का ख्याल रहता है। उसकी भूख सबके साथ होने में समाप्त हो जाती है, वह अपने दोस्तों के साथ समय बीताता रहता है। बचपन में जब हम दोस्त मिलते हैं, तो खेलना, घूमना, नई-नई बातों का योजना बनाना, अपने घर के खान-पान को बतलाना, अपनी नई वस्तु, कपड़ा, खिलौना आदि सभी को प्रस्तुत कर के अपने दोस्तों को दिखाना आदि यह सभी कार्य हम सम्पूर्ण दिन में यही करते हैं। किसी ने सच कहा है-‘जीने के हैं चार दिन’। 

जिस तरह से हिन्दी साहित्य इतिहास का चार भाग में बाँटा गया है, उसी तरह हमारी जि़न्दगी को भी चार भाग में बाँटा गया है। उन सब में से बचपन का युग सबसे महत्त्वपूर्ण युग होता है। उस समय में मन साफ होता है। जो सोचता है वही करता है और कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है। हर किसी को अपने समान देखता है। कहते हैं, भगवान का दूसरा रूप बच्चे होते हैं। मुझे आज भी वह सारे पल, दिन याद है जब मैं बच्ची थी तब दिन-रात का कुछ पता नहीं चलता था। पलक झपकते ही शाम हो जाती थी। जल्दी रात हो जाती थी। अब हर पल यह सोचती हूँ कि मैं इतनी जल्दी बड़ी कैसे हो गयी? जब मैं छोटी थी, तो सोचती थी कि मुझे बहुत जल्दी बड़ी होना है क्योंकि बड़ा होने से सबकुछ मिलेगा। किन्तु अब जब मैं बड़ी हो गई हूँ तो मुझे छोटी होने का मन हो रहा है। आज भी बचपन के वे पल याद आते हैं, तो चाहती हूँ कि फिर से मैं अपने उस बचपन के दुनिया में चली जाऊँ, काश कोई ऐसा मन्त्र, शक्ति, वस्तु आदि होते और मुझे फिर से बच्चा बना दे, तो समझूँगी जि़न्दगी के अमृत को पी लिया समझुंगी। अगर किसी से या भगवान से कुछ वरदान माँगने को मौका मिल जाए, तो मैं केवल अपने बचपन को ही माँगूंगी। 

बचपन का यह प्रभाव इतना गहरा है कि आज भी बीते लम्हों को याद करती हूँ, तो आँखों में नमी आ जाती है और कभी-कभी अपने बचपन के पागलपन भरे हरकत के बारे में सोचती हूँ, तो मन ही मन हँस पड़ती हूँ। इन खट्टी-मीठी यादों एवं इन अविस्मरणीय पलों को सिर्फ मैं ही अनुभव कर सकती हूँ, उसे महसूस सकती हूँ और कोई नहीं। सुबह-सुबह खेलना, नहा-धोकर स्कूल जाना, समय से थोड़ा पहले पहुँचना कि कहीं कोई अपना कलम, पेंसिल, कटर, इरेजर आदि छोड़ा हो और हम उसे पा लेें। पहले इसलिए भी जाना चाहते थे कि दोस्तों के साथ खेलने को मिलेगा। स्कूल से लौटते वक्त भी खूब मस्ती होती। रास्ते में धूल की परवाह किए बिना खेलना और अंत में नदी जाकर एक साथ कूदना। साथ में नहाना और यह नहाना भी ऐसे-वैसे नहीं, तब तक नहाते जब तक हमसब की आँखें लाल ना हो जाती। फिर घर जाकर अपना बैग फेंक देना। अगले दिन सुबह होती, तो फिर अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर स्कूल जाना। 

यही सब बालपन में रोजाना का नियम था। हम घरवालों से बचने के लिए सब बच्चे इशारों में अपनी बाता साझा करते थे, आजकल बचपन का मतलब मम्मी, पापा, कम्पयूटर, मोबाइल फोन, वीडियो गेम, पैसे आदि हो गए हैं। अधिसंख्य आधुनिकक बच्चे जैसे अपने बचपन के हसीन पल भूल चुके हैं। वे सब अपनी जि़न्दगी को कुछ अलग ही रौ में जी रहे हैं। जबकि हम सब जानते हैं-‘जि़न्दगी ना मिलेगी दुबारा।’ 

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