...... हरीशकुमार शर्मा * गाँव! अब नहीं रहा सुख-शान्ति का ठाँव। लुटा गाँव, पिटे लोग; मनुजता को लगे रोग। लुट गया गाँव- लूटा दरोगा ने गाँव का आत्मसम्मान, वोट ने अमन और ईमान तथा सरकार ने गाँव का प्रधान; लूट ले गया पटवारी- गाँव का सुख-चैन और बो गया बीज कलह के- डालकर धरा में निशान। लुट गयीं परम्पराएँ, लु ट गये आचार; लुटी मान्यताएँ, सहज विचार; अभाव लूट ले गए लोकाचार- धनिए के पत्तों से मट्ठे तक को लगने लगी तोल, सभी कुछ मिलने लगा मोल! टलिया भी ले गया लूटकर, बगों को काट- कोयल के सुरीले बोल। सभी कुछ लु ट गया! शंकाएँ लूट ले गयीं अलाव, जनसंख्या आदमी का भाव, और समृद्धि? उसे तो कहाँ तक गिनाऊँ? किस-किसको बताऊँ? मुकदमेदारी ने लूटा, बीमारी रिश्वत ने लूटा, बढ़ती जनसंख्या ने लूटा, नित्य नयी भ्रष्टाचार शराब ने लूटा, और न जाने कितनों ही ने लूटा! सबने लूटा- सबकुछ लूटा, जी भर लूटा, पर सर्वाधिक लूटा उसके अपने निवासियों ने जो लूट ले गये गाँव की आत्मा- शहरों को मटमैली कर और छोड़ गये खाली गाँव। लेकिन इतने पर भी मरा नहीं है गाँव; अभी जिन...